बाहर निकालो! मुझे
पत्थरों के इस बियाबान से,
उफ़! कितनी घुटन है, टूटन है, ऊबन है
कितनी रेतीली है, पांव के नीचे की धरती
पानी की सोत तलाशते बेदम हूँ मैं
कनाट प्लेस के गंधहीन वोगेनबेलिया से
कहीं ज़्यादा खूबसूरत हैं, मेरे गाँव के दक्खिन में खिले
बेहया के फूल
हाँ, मुझे प्यार है, अपने तालाब की जलकुम्भी से
कीचड़ की सोंधी महक से
मत बनाओ मेरे गाँव को दिल्ली.
गुरुवार, 28 मई 2009
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