रविवार, 8 फ़रवरी 2009

मेरा झिलमिल प्यार....


पावस की पहली फुहार जेठ-बैसाख का ताप सह चुकी मिट्टी पर पड़ी, फिर सोंधी सी महक छिटक उठी। सरसों के हरे-भरे खेत, पीली पंखु्ड़ियों ने जैसे आंखें खोलीं, एक मादक सी गंध बिखर गई चारों ओर। नहर से निकली माइनर, माइनर और नहर के बीच सेतु बना कुलाबा। कुलाबा जब नहरी पानी के प्रवाह को थामकर माइनर में फेंकता तो आवाज आती...कैसी आवाज? झरने सी। पानी पूरे खेत में फैलता, बगुलों का झुंड टूट पड़ता। ये मेरे छुटपने का प्यार हैं। एक तरफा नहीं, मुझे लगता ये सब मेरे लिए ही हैं। बेशक अब ये प्रेम कहानी विरह के अंजाम पर है। प्रेम को सिद्धांतो, परिभाषाओं में कैसे जकड़ सकते हैं? जितना सरल, सरस और सहज है प्रेम..शायद उतना जटिल भी। महसूसा जा सकता है, मगर कहा नहीं जा सकता। अभिव्यक्त किया नहीं जाता, हो जाता है। कोई खास मौका नहीं हो सकता, प्रीत को जाहिर करने का। बल्कि जब जाहिर होने लगता है तो मौका खास बन जाता है। आकर्षण पहला बिंदु है प्रेम का॥इस बिंदु से बिंदु जुड़ते जाते हैं..जुड़ते जाते हैं तो खिंच जाती है प्यार की सरल रेखा। ये रेखा पहले हल्की गुलाबी फिर चटख सुर्ख हो जाती है और फिर रेशम की डोर बन गुंथ जाती है, मन को बांध लेती है। इस बंधन में गुदगुदी होती है़। डोर कहीं से भी कमजोर पड़ती है तो असहनीय चुभन होती है, ये चुभन भी खुशनसीबों को ही मयस्सर होती है। प्यार में टूटकर बिखरना, टुकड़ों-टुकड़ों में जुड़ते रहना भी एक हुनर है। ये हुनर हासिल करना ही शायद प्यार की शर्त है...और तो कोई शर्त नहीं होती प्यार की।
शायर रौनक रजा के अल्फाज़ में...
हमने तुमने बचपन में अपनी-अपनी खिड़की से
आइनों की किरणों से, कितने खेल खेले हैं,
अब जवान होते ही क्या हुआ?
खिड़कियां नहीं खुलतीं, आइने अकेले हैं।
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बिछड़के तुमसे वो आलम मेरी उड़ान का था..
कि मैं जमीं का रहा न आसमां का।

पत्रकार आलोक श्रीवास्तव के शब्दों में........

मै तुम्हें प्रेम करना चाहता था
जिस तरह से तुम्हें किसी ने नहीं चाहा
तुम्हारे भाई, पिता मां और भी तुम्हारे चारों तरफ के तमाम लोग
जिस तरह से तुम्हें नहीं चाह सके
मैंने चाहा था तुम्हें उस तरह से चाहना
चांद सितारों की तिरछी पड़ती रोशनी में
दिप-दिप हुआ तुम्हारा चेहरा
बहुत करीब से देखना
मैं चाहता था
तुम्हारा बचपन खुद जीना तुम्हारे साथ
तुम्हारे अतीत की गलियों -मोहल्लों शहरों में जाना
जिस नदी के जिस किनारे कभी तुम ठहरी हो कुछ पल को
अपनी हथेलियों में वहां उस नदी को उठा लेना
जो फूल तुम्हें सबसे प्रिय रहे कभी एक-एक पखुंड़ी को
हाथ में लेकर देर तक सहलाना
तुम्हारे इसी नगर में मैं इन सबक साथ थके कदमों से गुजरता हूं
कभी तुम्होर घर के सामने से
कभी बहुत दूर उन रास्तों से
उन लोगों से, उन इमारतों और उन दरख्तों से
जो तुमसे आशना था
पर ये दर्द है कि बढ़ता ही जाता है।।

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

साल नया, पुरानी इबारत

लो, फिर आ गया नया साल
मेरे कैलेंडर की इबारत बदलने
०१ जनवरी से ३१ दिसंबर तक
एक-एक दिन विहान किए मैंने
नए साल के इंतजार में..
अब आने को है नया साल
बीबी कल ही ले आईं नया गणेशआपा
पहले उनने त्यौहारों की तारीखें देखीं
फिर उलटा सालाना राशिफल का पन्ना
रोजगार की दिशा में किया प्रयास सार्थक होगा
साल के मध्य में सुधरेगी राहु की महादशा
उनकी आंखें चमकीं, उनींदेपन से मुझे झिंझोड़ा
मैंने, उबासियां लीं, 'सुजाता' का चेहरा हाथों में थामा
कितनी आशावादी हो तुम..मैंने कहा..
३१ दिसंबर २००७ का संवाद मत दोहराओ।
हां, मेरी शर्ट सफेद करती रहो रोज..
मैं रंग भरूंगा तुम्हारे सपनों में एक रोज
अपनी नींदें कर दी हैं नीलाम, ज़मीर गिरवी
चूल्हा गरम करने को, तुम्हारी साड़ी में पैबंद लगाने को।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

स्मृति शेष ......

परम आदरणीय बाबू लाल शर्मा जी को श्रद्धा के दो पुष्प मेरी ओर से भी....

बुधवार, 27 अगस्त 2008

कुछ नई लड़कियां.....

अबे ओए...इधर आ॥तू साले ना ऐसे नहीं सुधरेगा..इतना कहकर उस लड़की ने अपने हम उम्र लड़के को पीछे से एक किक जमाई। मैं तो ताकता ही रह गया॥टुकुर..टुकुर। लोवर हाफ़ में घुटने के थोड़ा नीचे तक चुस्त जींस॥ऊपर बनियाननुमा टीशर्ट डाले हुए थी वह लड़की। टीवी की पत्रकार है वह..उसके जैसी कई लड़कियां हैं। जो घर से दफ्तर के लिए निकलती हैं तो शर्म हया, लाज-लिहाज सब आल्मारी में बंद कर आती हैं। मेरे लिए ये थोड़ा नया और अटपटा भी था। ये तो सुना था कि थोड़ी बोल्ड होती हैं ये। मगर, इतनी ज़्यादा ये नहीं सोचा था। बेचारी हैं...करें तो क्या करें॥घर की चौखट लांघी नहीं कि अनगिनत निगाहें गड़ जाती हैं उन पर..समझती खूब हैं..पर ये समझने देती हैं कि वो कुछ समझ नहीं रही हैं। अब पर्दे में छिपी-दबी सकुचाई सी रहने वाली नहीं..मेरी दादी अम्मा बताती थीं कि उन्होंने पहली दफा जब दादाजी का चेहरा ठीक से देखा था तब तक उनकी तीन संतानें पैदा हो चुकी थीं,,मैंने थो़ड़ी ठिठोली भी की थी उनसे कि दादा जी का चेहरा देखे बगैर आप मां बनीं कैसे..उन्होंने आंखें तरेंरीं और कुछ बताया..जिसका आशय था कि अंधेरा भी लाज-लिहाज का परदा होता था। मगर दादी का ज़माना तो कब का लद गया भाई। महिलाएं पुरुषों के कदम से कदम मिलाकर नहीं, बलि्क उनसे एक दो कदम आगे बढ़कर चल रही हैं। मुझे इस पर आपत्ति नहीं है..आपत्ति है तो बस उनके टर्न आउट (पहनावे) पर। उनके साथ अभद्रता होती है..रेप जैसी वारदातें भी कम नहीं हो पा रही हैं। कहीं न कहीं विकृति कायम है। इसे उभरने न दें। बच्चियों आगे बढ़ो..लड़ो..चढ़ो..टकराओ,,लेकिन संभल..संभलकर पांव रखो..अभी गली-गली में शैतान घूम रहे हैं मुखौटे लगाए........

रविवार, 27 जुलाई 2008

हाई अलर्ट....बी अलर्ट, वी अलर्ट!

कितने बेबस हो गए हैं हम। रौ में चल रहा जनजीवन जाने कब तबाही के मंजर में तब्दील हो जाए। हंसी-ठिठोली, ठहाके और जिजीविषा का शोर कब तरमीम हो जाए चीत्कार और हा-हाकार में। कहीं से खबर न आए जाए अपनों के मारे जाने की। अब आदत सी तो नहीं बन जा रही है हमें ऐसे माहौल में घुट-घुटकर और टूट-टूटकर जीने की। बेंगलुरू के बाद शनिवार को अहमदाबाद में दहशतगर्दों की कायराना हरकत ने फिर हमें झिझोंड़ डाला। हम मुंह मोड़ ले रहे हैं। सिर्फ इतना भर पता करके संतोष कर ले रहे हैं कि धमाकों की जद में कहीं हमारा कोई लगा-सगा तो नहीं आ गया। कैसी विपदा में फंसे हैं हमारे भारत के अमनपसंद लोग। हमारी साझी विरासत को कैसे तार-तार कर रहे हैं सिरफिरे। राजधानी समेत देश के तमाम बड़े शहरों में हाई अलर्ट है। सिक्योरिटी सिस्टम मुस्तैद है। हमें भी मुस्तैदी दिखानी होगी। हमारे बीच ही छिपे हैं मासूमों के कातिल नमक हराम। स्लीपर सेल को जमींदोज करने को हमें जागना होगा। ये खबर का विषय नहीं है। मीडिया जगत और सरकारी प्रचार तंत्र से भी गुजारिश है कि कैसे हुए धमाके....इन खबरों के बजाए हमें रोज-ब-रोज याद दिलाएं कि कोई चुटकी भर बारूद रखकर हमारी तबाही का खेल-खेलने की साजिश तो नहीं रच रहा। वरना हमारे चीथड़े यूं ही उड़ते रहेंगे।

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

भीड़तंत्र और सिर पर मंडराता मौत का साया...

एक खबरिया चैनल पर आज शाम दो लाइव शॉट देखकर मन दो तरह का हुआ॥ थोड़ा खिन्न और थोड़ा भयाक्रान्त। सचमुच ऐसा ही है या सचमुच ऐसा नहीं है। क्या जैसा है,,वैसा दिखता है? और जैसा दिखता है..वैसा है?????सवाल कुछ कौंधते हैं..बिंब कुछ उभरते हैं..प्रतिबिंब भी। शॉट क्या थे ये तो सुन लीजिए।शॉट-एकराजधानी का मंडावली इलाका...,,,एक औरत...बेचारी..औरतों के बीच घिरी हुई..तमाम तमाशबीन..उनमें पुरुष भी। पहले एक महिला ने चप्पल उतारी और ताबड़तोड़ उस महिला पर बरसानी शुरू कर दी, फिर कोई हाथ साफ करने से चूका नहीं, उस भीड़ में न महिलाएं और न ही पुरुष..सभी उसको बेतहाशा पीटते रहे..फिर क्या वह चैनल वालों के हाथ लग गई..बेचारी..फिर तो मामला ऑन-लाइन हो गया..कौन-कौन नहीं आया लाइन पर..किरन बेदी साहिबा भी आईं। तीन चेहरे दिखे पहला चेहरा भीड़तंत्र का..दूसरा न्यूज कॉर्पोरेट तंत्र और तीसरा संचालक तंत्र यानी व्यवस्था का। उलझन में हूं,,,सोच रहा हूं..व्यवस्था में खोट है (जहां महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील और सीएम शीला जी हैं,,,और शायद उस इलाके की एमएलए भी आधी दुनिया से ही बिलॉंन्ग करती हैं) या ये भीड़तंत्र की साइकोलॉजी है? कुछ आप ही सुझाएं....समाधान...

शॉट-दोएक गोल्डन ईगल..किसी लड़ाके विमान के मानिंद सांय...सांय...सांय कर आसमान से गलबहियां करता हुआ।..उसने थोड़ा नीचे की ओर रुख किया और एक छोटी सी पहाड़ी पर घास चर रहे बकरी के बच्चे को पंजे में दबोचकर उड़ चला। इस सेंसेशनल शॉट के साथ कैच वर्ड भी था..घाटी पर मंडराती मौत...मैं थोड़ा सहम गया..कहीं बाज इंसान के बच्चों पर न हमलावर होने लगें। शाम को दफ्तर जाने के लिए निकला तो आकाश की ओर ताका,,कहीं ऊपर मौत तो नहीं मंडरा रही है..बगल वाले भाईसाहब को भी ताकीद कर आया था कि वे भाभीजी से बता दें कि बच्चे जब खुले आसमान के नीचे खेल रहे हों तो वे एक लग्गी लेकर उनकी सिक्योरिटी में लगी रहें।

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

मां.. जगद्जननी हमारा पोषण करें..

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संसि्थता नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै..नमस्तस्यै नमो नमः..........हे देवी मैं यथाशकित आपकी उपासना करते हुए यह कामना करता हूं कि आप संपूर्ण जगत में शक्ति, शांति और समृद्धि का संचार करें। मां आन्नपूर्णा..आप भुखमरी और दरिद्रता से आकुल व्याकुल प्राणियों को उबारें। भय और दहशत से तप्त संसार को शीतल छाया प्रदान करें.. मां शीतला। हे महिषासुर मर्दिनी आप संहार करें आसुरी प्रवृत्तियों का। हे हंस वाहिनी,, आप विद्या रूपी प्रकाश से संसार का तमस दूर करें। जगद्जननी आप इस प्रकार हमारा पोषण करें। मुझमें नहीं है सामर्थ्य आपको प्रसन्न करने की। आप विवेक दें या स्वयमेव प्रसन्न हों भवानी........।