सोमवार, 13 फ़रवरी 2012
अब मैं एक स्त्री हूं...
सुनहली मिट्टी का टुकड़ा भर था। अभी इसका कोई आकार नहीं था। फिर भी कशिश
इतनी कि जी करता था निहारता रहूं बस। एकटक, पलकें झपकाए बिना। चांदनी में
घुला हल्का अंधेरा हो, बस इतनी ही उजास हो उसमें कि मुखड़ा तुम्हारा
दिखता रहे। तुम मुझे न देख पाओ। मैं नहीं चाहता तुम मुझे देख सको। तुम बस
आसमान की ओर ताकती रहो..देखो किस तारे पर तुम्हारा नाम लिखा है? मगर तुम
ये नीचे की रेतीली धरती पर क्या तलाशती फिर रही हो? समझ नहीं आ रहा।...
मुझे ले चलो...। कांपते होठों से उसकी लरजती हुई आवाज निकली। अंधेरे पाख
में अभी पूरे पंद्रह रोज बाकी हैं, तुम ले चलो बस। जल्दी करो..। अभी
बादलों की ओट है। अभी मेरा अभ्युदय बाकी है। पूरणमासी आते-आते मैं जब
पूरा चांद हो जाऊंगी तब मेरी डोली उठेगी और तब तुम मुझे देख नहीं पाओगे।
ओझल हो जाऊंगी मैं तुम्हारी आंखों के आगे से। तब तुम अभिनय करोगे खुश
होने का। तुम रो नहीं सकते खुलकर,,,। तुम मुझे रोक भी न सकोगे। .क्यों?
क्योंकि तुम मेरे पिता नहीं हो। भाई होते तब भी विदा की घड़ी में तुम
आखिरी बार मेरी पलकों के नीचे अपनी अंगुलियां फिराकर मेरे आंसू सुखा सकते
थे।
तो तुम चलो, एक छोटी पगडंडी पकड़ते हैं। बस, इसे पकड़कर सीधी चलती रहना,
देखना पैर डगमग न हों, अगल-बगल गहरी खाईं है। गहरी खाई है??? तो क्या तुम
मुझे गिरने दोगे? तुम भी न बावरी हो। मैं खुद को संभालूंगा कि तुम्हें।
अब छोड़ो भी बस ले चलो। उसने जिद नहीं छोड़ी। चलती चली गई...उसके पैर के
तलुवे जमीन पर पूरे चिपक रहे थे। उसके एक कदम पड़ते तो फिर वह बादलों की
ओर देखती..लंबी सांस छोड़ती..। उसने मेरा कंधा पकड़कर झकझोरा।
सुनो...सूरज को रोक दो..। कह दो इतना उतावला न बने। क्यूं अब सूरज से
तुम्हारी क्या रुसवाई? है रुसवाई। ये आएगा तो अंधेरा छंट जाएगा और जब
अंधेरा छंट जाएगा तो तुम मुझे देख नहीं पाओगे। फिर मैं अपने देस चली
जाऊंगी। फिर तुम मुझे कहां ढूंढते भटकोगे? व्यर्थ होगा, तुम मुझसे फिर
कभी नहीं मिल सकोगे। फिर उसने मेरे कंधे पर अपना सिऱ टिकाया। आंखे
मूंदी., आंखों से खारे पानी की धारा बहाती सपनों में खो गई।
सुनो कोई गीत गुनगुनाओ...। कोई भ्रमर गीत। फिर वह गीत सुनती रही। ये गीत
मन मंदिर में गूंजते रहेंगे। तब लगेगा कोई दूर रहकर भी कितना करीब है।
अब घने बादल साथ छोड़ रहे हैं। रुई के फाहे की मानिंद,,अब तुम्हारा चेहरा
कुछ-कुछ दिखने लगा है। जब ये सबको दिखने लगेगा तब ये मुझे नहीं दिखेगा।
उसने आंखें भींचते हुए बादलों की ओर देखा। तुमने सूरज को रोका क्यों
नहीं। अब जब मेरा चेहरा सबको दिखेगा तो मुझे जाना ही होगा। तुम आना.. जब
शहनाई के शोरगुल के बीच लोग मेरा पीहर छु़ड़ा देंगे। तब मैं स्त्री जैसी
दिखूंगी। जिसकी कोख से मैं जन्मी, शगुन की दही-चीनी खिलाकर वह मुझे जाने
किसे सौंप देगी। मैं जानती हूं वह मेरी मां है, पर वह भी एक स्त्री है।
उसका कलेजा छलनी हो रहा होगा पर वो गीत गाएगी और आंचल में मुंह छिपाकर
रोएगी। बाबा...जिनने उंगली पकड़कर चलना सिखाया, उनके सिऱ का बोझ उतर गया।
कागज के कई बंडल जिन पर मुद्रा होने की पहचान छपी थी। बाबा ने उन अनजाने
लोगों को सौंप दिया था और कहा था बेटी बड़े दुलार से पली है..ये कुछ पैसे
हैं..बेटी के जन्मने का जुर्माना। कोई गलती हो गई होगी खातिरदारी में तो
माफी।
अब शहनाई का शोरगुल तारी था। ये क्या हो रहा है? ये कैसी महफिल सजी है?
लोग-बाग दावतों में मसरूफ हैं। कोई कुछ सुन क्यूं नहीं रहा। कहां है मेरी
नन्हीं परी? वो है... ना..ना नहीं। वो नहीं है। चलो अभी खुद देखेगी तो
भागती आएगी। अरे वो कौन है जिसे परंपराओं के बंधन में राजी खुशी बांधा जा
रहा है? यही है पूनम का चांद। उफ, ये किसने अजीब से रंग इस चांद के
मुखड़े पर फैला दिए हैं। कहां है वह धुला-धुला दमकता मुखड़ा। मैं गौर से
देखता रहा। कुछ रेखाएं उभर आई थीं. उस पूनम के चांद के ऊपर। ये रेखाएं
मेरी जानी हुई थीं। अक्स कुछ-कुछ धुंधलाया सा नजर आ रहा था। मैंने आवाज
दी। आवाज जाने कहां लोप हो गई? अब तुम नजरें क्यों नहीं उठा रही हो?
अंधेरा छंट गया। तुम्हारी लरजती आवाज कानों में गूंज रही है...सूरज को
रोको नहीं तो तुम मुझे नहीं देख पाओगे। उन लोगों को भी नहीं जो मुझे ले
जाएंगे। फिर तुम रो भी नहीं सकोगे खुलकर..क्यूं..क्योंकि न तुम मेरे पिता
हो न भाई। बहन और मां भी नहीं। तुम मेरे लिए पवित्र हो, पर दुनिया तुम्हे
अछूत और अपवित्र मानेगी। अब मैं एक स्त्री हूं और किसी स्त्री को छूना
पाप है।
पवन तिवारी
गुरुवार, 1 दिसंबर 2011
एक साथी की चिट्ठी...
प्यारे फैजाबादी,
आज तुम्हारी याद बड़े गहरे से होकर गुजरी, बस चिट्ठी लिखने बैठ गया। एक कहानी पढ़ रहा था-बलि। हंस के अगस्त २००६ के अंक में छपी स्वयंप्रकाश की कहानी, जिसमें एक लड़की है, अपने रीति-रिवाजों- जगहों से प्यार करने वाली, लेकिन बाजार और विकास की जुगलबंदी उसे जिस तरह खत्म करती है, वह बड़ा तकलीफदेह है। खैर..कहानी की छाया प्रति तुम्हारे लिए नत्थी कर दी है।
इधर, फोन पर तुमसे लंबी-लंबी बातें हुईं,लगा कि तुम अभी चंडीगढ़िया नहीं हुए, फैजाबादी ही हो और रहोगे। उमराव जान अदा और गजल साम्राग्यी बेगम अख्तर के शहर के। आचार्य नरेंद्रदेव और राम मनोहर लोहिया की जमीन के। उस अवध के हो जहां, कभी मानस के कई कांड तुलसीदास ने रचे। तुम मसोढ़ा वाले कवि शलभ श्रीराम के पड़ोसी हो। अरे तुम तो पूरे अवधिया हो भाई। लगता भी है जब भावुकता में फक्क से रो पड़ते हो और मुशि्कल में सीना तानकर खड़े हो जाते हो।
पुरवाई चलती है तो बड़ा अच्छा लगता है। इसमें अवध की मिठास भी बही चली आती है, इसमे शाहजहांपुर भी घुला-मिला रहता है। मैं यहां कंक्रीट के ऐसे जंगल में हूं, जहां हवाएं भी बड़ी बेरहम हो जाती हैं। मित्र बड़ा निष्ठुर समय है यह। यहां कोई भी अर्थ खोजना व्यर्थ है। धूमिल के शब्दों में---नहीं वहां अब कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है। पेशेवर भाषा के तस्कर संकेतों और बैलमुती इमारतों में कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है, हो सके तो बगल से गुजरते आदमी से कहो---लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा, यह जुलूस के पीछे गिर गया था। तो ऐसे मुखौटों में चेहरों की पहचान कहां? एक अजनबीयत पसरी है चारों ओर। हां, कुछ चीजें तुम्हारे पास हैं जो तुम बरेली के पड़ाव में छोड़ गए थे। जब अंधेरा घना होता है तो इन्हीं के सहारे रोशनी तलाश लेता हूं। अब लोग क्या समझेंगे इन चीजों के मायने। जगहों से प्यार करने का रिवाज तो कब का खत्म हो चुका है और यादों को जिंदा रखने का भी।
स्वस्थ, मस्त, व्यस्त होगे, आभास।
भाई ही
पंकज मिश्र
शनिवार, 19 मार्च 2011
खबर
शनिवार, 15 अगस्त 2009
बैकग्राउंडर
नई दिल्ली हाउस की लिफ्ट नीचे की ओर सरक रही थी और कलेजा ऊपर की ओर। एचआर वाली मैडम को इस्तीफा दे आया था। नई नौकरी का जुगाड़ पहले ही हो गया था। साल भर हिचकोले खाता रहा, टीवी में। नए-नए काम खूब सीखा। खुद को निचुड़ने से रोकने की कभी कोशिश तक नहीं की। छापेखाने से कुछ ज्यादा ही मोह-ममता हो गई थी या फिर नए ट्रैक पर रफ्तार नहीं बना पा रहा था, कुछ साफ नहीं है। वैसे भी मैं कौन सा बहुत बड़ा विचारक हूं कि हर कदम तर्कपूर्ण ही उठाऊं। जिंदगी का हर सफर कुछ न कुछ सीख देता है। ये सफर भी बड़ा ही रोमांचक रहा। कुछ यादों पर वक्त की धूल की परतें चढ़ गईं हैं, उन्हें झाड़ रहा हूं। किसी को अच्छा लगा तो अच्छा, बुरा लगे तो भइया माफी देना, दुनिया गोल है।पहला दिन था, चैनल की नौकरी का। ईपी साहब न्यूज़ रूम में सबसे मिलाने ले गए, ये हैं फलां जी, हमारे अमुक विभाग के हेड,,,मुझे पता नहीं कहां से सुनाई पड़ा,,,ऑरक्युट हेड... संयोग से उनने वही खोल भी रखा था। मैंने सोचा ये कौन सा पद है? अच्छा..ऑरक्युट के जरिए लाइन-अप करते होंगे रिपोर्टरों को या फिर कंटेंट प्रोवाइडर्स को...मैंने अपना ग्यान लगाया। हालांकि बाद में उनका पद जान पाया तो खुद पर बड़ी हंसी आई। फिर आगे बढ़े सबसे मिलाते गए ईपी सर। मुझे रनडाउन डेस्क, जहां खबरों को चलाने का क्रम और हेडलाइन बनती है, पर बैठकर कामकाज सीखने को कहकर चले गए वे। मैं पीछे एक बेंच पर बैठ गया। एक मोहतरमा थीं, होंठ पर हल्की लिप्सिटक और चेहरे पर उससे कई गुना कॉन्फिडेंस पोते हुए। कंप्यूटर पर कुछ टाइप कर रही थीं, पलटीं और बोली हुं,,वहां क्या कर हो? ऐसे कैसे सीखोगे? मेरा मुंह उस वक्त देखने लायक रहा होगाहोगा। बोली-इधर आओ। कहां थे इससे पहले? मैंने बोला, जी अखबार में।,,,ऐं,,अखबार में,,अच्छा देखो ये टीवी है? लैंगुवेज जरा ठीक रखना। एसटीडी पैकेज क्या है? एसटीडी वीओ शॉट,,सॉट ,,,शॉट सॉट? मैं क्या हेडिंग, सब हेडिंग, क्रासर, फ्लैग, इंट्रो, ७२ प्वाइंट हेडिंग, लीड-बॉटम, फिलर वाला बंदा ये सब क्या जानूं। मैंने ना में सिर हिलाया बोला। हफ्ते भर में जान लूंगा मैडम जी। बस क्या था बगल में बैठे एक बड़े बॉस मुंह की गिलौरी संभालते हुए चीख पडे...अट्ठारह साल में मैं नहीं सीख पाया टीवी और ये हफ्ते भर में सीख लेंगे। मैं समझ गया॥ये बड़ी चीज हैं। वे वाकई बड़ी चीज हैं। बड़े-बड़े संपादकों को बूशट खरीद कर दिलवाई है उनने।
खैर, मैं शांत भाव सबको देखता-समझता रहा। मुझे क्या करना है? ये जल्दी सीखने की कोशिश करने लगा। जितना बेवकूफ हूं, उससे ज्यादा अपने को शो करता रहा। जो लोग संजीदा थे वो ताड़ गए थे मुझे। नई-नई दोस्ती हुई। सबसे दोस्ती हुई। कभी कभी रात १० बजे का दफ्तर पहुंचा सुबह १० बजे छूटा। एक बार नाइट शिफ्ट के बाद जब अगले दिन सुबह साढ़े दस तक रिलीव नहीं हुआ तो एक बॉस को फोन किया। उनकी प्रतिक्रिया थी..तिवारी को तो सुबह से ही खुजली होने लगती है? हालांकि बाद में उन्हें बड़ी खुजली हुई और उन्हें विदा होना पड़ा। ये सब मुझे नहीं लिखना चाहिए। मेरे बारे में कंपनी की क्या फीड बैक है? मुझे नहीं पता। कोशिश रही कि कोई उंगली न उठाने पाए। मेरे जाने के बाद भी कोई उंगली न उठाए। यही मेरा कैरेक्टर रोल होगा। कुछ बड़े मेहनती लोग हैं, बेहद सकारात्मक नजरिया है उनका। मेरा नर्सरी स्कूल ये टीवी फलता-फूलता रहे। अब नई पारी शुरू की है। हे ईश्वर अब, कहीं नौकरी के लिए मत भटकाना मुझे। सीवी अपडेट करते-करते थक चुका हूं, टेस्ट और इंटरव्यू देते भी। रिलीविंग लेटर और ज्वाइनिंग लेटर लेते भी। कोई कह देगा कि नौकरी तलाश लो कहीं, तो तलाशूंगा। नहीं तो तराशता रहूंगा खुद को। आखिर कितने टुकड़े करूंगा मन के।
गुरुवार, 28 मई 2009
...मत बनाओ मेरे गाँव को दिल्ली
पत्थरों के इस बियाबान से,
उफ़! कितनी घुटन है, टूटन है, ऊबन है
कितनी रेतीली है, पांव के नीचे की धरती
पानी की सोत तलाशते बेदम हूँ मैं
कनाट प्लेस के गंधहीन वोगेनबेलिया से
कहीं ज़्यादा खूबसूरत हैं, मेरे गाँव के दक्खिन में खिले
बेहया के फूल
हाँ, मुझे प्यार है, अपने तालाब की जलकुम्भी से
कीचड़ की सोंधी महक से
मत बनाओ मेरे गाँव को दिल्ली.
रविवार, 8 फ़रवरी 2009
मेरा झिलमिल प्यार....
पावस की पहली फुहार जेठ-बैसाख का ताप सह चुकी मिट्टी पर पड़ी, फिर सोंधी सी महक छिटक उठी। सरसों के हरे-भरे खेत, पीली पंखु्ड़ियों ने जैसे आंखें खोलीं, एक मादक सी गंध बिखर गई चारों ओर। नहर से निकली माइनर, माइनर और नहर के बीच सेतु बना कुलाबा। कुलाबा जब नहरी पानी के प्रवाह को थामकर माइनर में फेंकता तो आवाज आती...कैसी आवाज? झरने सी। पानी पूरे खेत में फैलता, बगुलों का झुंड टूट पड़ता। ये मेरे छुटपने का प्यार हैं। एक तरफा नहीं, मुझे लगता ये सब मेरे लिए ही हैं। बेशक अब ये प्रेम कहानी विरह के अंजाम पर है। प्रेम को सिद्धांतो, परिभाषाओं में कैसे जकड़ सकते हैं? जितना सरल, सरस और सहज है प्रेम..शायद उतना जटिल भी। महसूसा जा सकता है, मगर कहा नहीं जा सकता। अभिव्यक्त किया नहीं जाता, हो जाता है। कोई खास मौका नहीं हो सकता, प्रीत को जाहिर करने का। बल्कि जब जाहिर होने लगता है तो मौका खास बन जाता है। आकर्षण पहला बिंदु है प्रेम का॥इस बिंदु से बिंदु जुड़ते जाते हैं..जुड़ते जाते हैं तो खिंच जाती है प्यार की सरल रेखा। ये रेखा पहले हल्की गुलाबी फिर चटख सुर्ख हो जाती है और फिर रेशम की डोर बन गुंथ जाती है, मन को बांध लेती है। इस बंधन में गुदगुदी होती है़। डोर कहीं से भी कमजोर पड़ती है तो असहनीय चुभन होती है, ये चुभन भी खुशनसीबों को ही मयस्सर होती है। प्यार में टूटकर बिखरना, टुकड़ों-टुकड़ों में जुड़ते रहना भी एक हुनर है। ये हुनर हासिल करना ही शायद प्यार की शर्त है...और तो कोई शर्त नहीं होती प्यार की।
शायर रौनक रजा के अल्फाज़ में...
हमने तुमने बचपन में अपनी-अपनी खिड़की से
आइनों की किरणों से, कितने खेल खेले हैं,
अब जवान होते ही क्या हुआ?
खिड़कियां नहीं खुलतीं, आइने अकेले हैं।
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बिछड़के तुमसे वो आलम मेरी उड़ान का था..
कि मैं जमीं का रहा न आसमां का।
पत्रकार आलोक श्रीवास्तव के शब्दों में........
मै तुम्हें प्रेम करना चाहता था
जिस तरह से तुम्हें किसी ने नहीं चाहा
तुम्हारे भाई, पिता मां और भी तुम्हारे चारों तरफ के तमाम लोग
जिस तरह से तुम्हें नहीं चाह सके
मैंने चाहा था तुम्हें उस तरह से चाहना
चांद सितारों की तिरछी पड़ती रोशनी में
दिप-दिप हुआ तुम्हारा चेहरा
बहुत करीब से देखना
मैं चाहता था
तुम्हारा बचपन खुद जीना तुम्हारे साथ
तुम्हारे अतीत की गलियों -मोहल्लों शहरों में जाना
जिस नदी के जिस किनारे कभी तुम ठहरी हो कुछ पल को
अपनी हथेलियों में वहां उस नदी को उठा लेना
जो फूल तुम्हें सबसे प्रिय रहे कभी एक-एक पखुंड़ी को
हाथ में लेकर देर तक सहलाना
तुम्हारे इसी नगर में मैं इन सबक साथ थके कदमों से गुजरता हूं
कभी तुम्होर घर के सामने से
कभी बहुत दूर उन रास्तों से
उन लोगों से, उन इमारतों और उन दरख्तों से
जो तुमसे आशना था
पर ये दर्द है कि बढ़ता ही जाता है।।
सोमवार, 29 दिसंबर 2008
साल नया, पुरानी इबारत
मेरे कैलेंडर की इबारत बदलने
०१ जनवरी से ३१ दिसंबर तक
एक-एक दिन विहान किए मैंने
नए साल के इंतजार में..
अब आने को है नया साल
बीबी कल ही ले आईं नया गणेशआपा
पहले उनने त्यौहारों की तारीखें देखीं
फिर उलटा सालाना राशिफल का पन्ना
रोजगार की दिशा में किया प्रयास सार्थक होगा
साल के मध्य में सुधरेगी राहु की महादशा
उनकी आंखें चमकीं, उनींदेपन से मुझे झिंझोड़ा
मैंने, उबासियां लीं, 'सुजाता' का चेहरा हाथों में थामा
कितनी आशावादी हो तुम..मैंने कहा..
३१ दिसंबर २००७ का संवाद मत दोहराओ।
हां, मेरी शर्ट सफेद करती रहो रोज..
मैं रंग भरूंगा तुम्हारे सपनों में एक रोज
अपनी नींदें कर दी हैं नीलाम, ज़मीर गिरवी
चूल्हा गरम करने को, तुम्हारी साड़ी में पैबंद लगाने को।