शुक्रवार, 28 मार्च 2008

वाह रे लड़कपन....

आज दफ्तर में बैठे-बैठे प्रसंगवश बचपन का एक रोमांचक किस्सा चल निकला। ये मेरे जीवन के तमाम रोचक किस्सों में से एक खास है। आपने मेरा ब्लॉग खोल ही डाला है तो सुन ही डालिए। किस्सा सन १९९२ के आस-पास का है। मैं उस समय १०वीं क्लास पास कर ११वीं में गया था। १० वीं का इम्तहान दे रहा था तो पिताजी ने कहा, मन लगाकर पेपर दो, ठीक-ठाक नंबर लाओगे तो साइकिल मिलेगी इनाम में। खैर, ठीक-ठाक नंबर तो नहीं, मगर मैं पास हो गया। इनाम लायक काम तो किया नहीं था, सो इसकी आशा भी नहीं की..मगर ये क्या पापा ने साइकिल दे ही दी..कहा..तुम पास हो गए...मेरे लिए यही बहुत है। चलो..भइया साइकिल मिली..हरे-हरे रंग की..एटलस गोल्ड लाइन..मेरी तो बस बांछे ही खिल उठीं..सवार हुआ और शेखी बघारने चल दिया सबसे आजीज दोस्त के पास..वहां उसके घर के सामने साइकिल खड़ी की और घर में चला गया..लौटा तो साइकिल नदारद..पैरों तले जमीन खिसक गई। दोस्त से कहा,,बहुत तोड़ाई होगी यार घर पर..पिताजी न गिराकर मारेंगे। दोस्त इमोशनल हो गया,,बोला परेशान मत हो,,,आज चचा से कह देना कि मैने ले ली है साइकिल..कल के लिए कुछ जुगाड़ करूंगा। मैंने घर पर वैसा ही बहाना बनाया। दूसरे दिन फिर मीटिंग हुई उसी हमराज दोस्त के साथ..हुं,,क्या किया जाए..हम लोग उस समय जीआईसी फैजाबाद के कैंपस में थे। यकायक उसकी आंखें चमकीं और उसने मुझसे कहा..तुम गेट पर पहुंचो..मैं आ रहा हूं..पांच मिनट में वह एक साइकिल लेकर हांफता-डांफता पहुंचा..बोला..लेकर भाग इसे..मैं तो सहम उठा..इतना ढीठ नहीं था..उसने फिर कहा,,भाग नहीं तो तू मुझे भी पिटवाएगा..मैंने दुस्साहस बटोरा और भाग निकला साइकिल लेकर..ठीक-ठीक याद है मुझे..साइकिल के पैंडल ही नहीं चल रहे थे मुझसे..हांफ गया चार मीटर की दूरी पर ही..लगा आभी गिर पड़ूंगा..उफ..किसी तरह घर पहुंचा और साइकिल तो डाल दी भुसैले में(जहां भूसा रखते हैं)। पसीने से तरबतर..बाहर आया..देखा कि कोई पीछा करके घर तक तो नहीं आ गया..न न न कोई नहीं..फिर भी चैन नहीं। घर में गया तो मां ने पूछा क्या बात है..काहे परेशान हो? कहा..कुछ नहीं..साइकिल....। साइकिल क्या? उन्होंने फिर पूछा..मैंने कहा..पंक्चर हो गई है.पैदल लाया..इसलिए थक गया.. मां बेचारा क्या जाने हमारा चौआल..बोली तो आराम कर लो..खानापीना खाकर। साइकिल १५ दिनों तक भुसैले में ही पड़ी रही..मैं उसे निकालने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। इस बीच पिताजी ने कई बार तगादा किया कि ...का हो..सइकिलिया का भई॥ अभी दोस्तवै के पास है..बहुत बड़े दानी हो..हमका बीए तक नहीं मिली थी साइकिल..। तरसते होते तो पता चलता..। मैंने कहा,,साइकिल तो ले आया पापा..पर एक गड़बड़ी हो गई..पिताजी बोले क्या..मैंने कहा..दोस्त ने कहीं गलती से बदल दी..बहुत खफा हुए..मगर बाद में शांत हो गए। मगर मेरा मन नहीं शांत हुआ..अभी भी..जब वो किस्सा याद आता है तो हलचल सी मचती है। वो मेरा मासूम चोर दोस्त फिलवक्त टाई बांधकर घूमता है,एमआर है,,मैं भी समाज का एक जिम्मेदार पेशेवर हूं..दोनों जब कभी मिलते हैं तो यह वाकया फिर ताजा हो जाता है..दोस्ती के बंधन में एक मजबूत गांठ और कस उठती है..मगर गलत था..वह..बिलकुल गलत..कभी कोई हालात ऐसी जरूरी चोरी करने के लिए फिर न उकसाए..न उसे न हमें और किसी को भी नहीं।।

सोमवार, 17 मार्च 2008

बुरा तो मानो होली है भइया..

हुल...हुल..हुल ..हुल हल्ला हुल हुल.....होली है भाई होली है...बुरा न मानो होली है..बुरा मान भी सकते हैं मने किकुछ न कुछ तो मानना ही पड़ेगा आपको..बुरा या भला..बुरा मानेंगे तो उसमें भी एक जुडाव छुपा होता है..वरना साहब सड़क चलते कौन किस से नाराज होता है..होता भी है तो मार ही डालता है। हम ख़बर नवीसों को अक्सर ऐसे किस्से मिलते हैं छपने को..कोई नाराज हो किसी से और फिर कोई उसे मनाये..गिले शिकवे साझा हों , फिर एलास्टिक के तन्तु के मानिंद खिंचाव हो और एक दूजे से फिर सटाक से चिपक जायें...अहा आहा..क्या कभी आपने ऐसा सुख महसूसा है...नहीं तो दुर्भाग्य॥
चलो देखते हैं कि पिछले ३१ सालों में कैसे बदली होली..मैं अब ३१ साल का हूँ.. सन ८३ कि होली मुझे याद है..हलकी हलकी धुंध सी स्मृति है..होली तब se ab badrang हुई है कि और चटख ..इस बारे में मनन कर रहा हूँ.. अब दिल्ली में हूँ..तब अपने आँगन मे था..लाल-पीली नीली काले धब्बे..हरे चटख रंगों वाली साड़ी पहनकर जब फागुन रानी आती थीं तो लगता था कि अपने साथ लाया हुआ उल्लास और उत्साह से भरा बक्सा उन्होंने खोल दिया जो पूरी फिजां में तैर जाती थी..ओफ्फो ,,,गज़ब की मिठास घुली रहती थी..पूरे माहौल में । जब मैं बच्चा था तो फागुन रानी मुझे अपनी माँ जैसी लगती थीं, किशोर हुआ तो सुंदर लड़की, फिर प्रेयसी॥
''''होली खेलें रघुबीरआ अवध में होली खेलें रघुबीरा...'''''सुबह से ही ढोल मजीरे लेकर मस्त फाग की टोलियाँ घर-घर जाकर धमाल मचाती। अब शोर थम गया है..पिता जी नहीं रहे..पुद्दन चाचा भी और सरजू दादा..भी उमर पूरी कर चले गए..कौन बजाये अब ढोल..परधान जी के लौंडे ने चन्दा इकट्ठा किया..ऑर्केस्ट्रा और dजे मंगाया..वहाँ बवाल हो गया....थम गया सिलसिला
सिर फूट गये कई लोगों के पुलिस आई गांव में फौजदारी हो गई। जमाना खराब हो गया॥कोई घर से बाहर नहीं निकलता होली के दिन..आरे सब घुप्प..बंद का हो चचा होली वोली न होए..आरे हटो कौन खेलने जाए लंफूसों के बीच में सब के सब साले दारू पिए हैं..और जो दारू पिए हैं होली तो उन्हीं की है..यानी जो मदहोश हैं...बे...होश हैं..होश में नहीं हैं तो होश वालों की होली कैसे होगी...
हमने तो रंग घोला और खुद ही आपने ऊपर डाल लिया॥कालिख उनके लिए रख छोड़ी है जो हमारे त्यौहारों को स्याह कर रहे हैं..कमीने लोग..
''''गंध नहीं है आब बची टेसू के फूलों में..दुर्गध फैला रहे हैं सिरफिरे 'तमाम..'''

मंगलवार, 11 मार्च 2008

हाँ,हाँ, विदेश में ऐसे ही होतें हैं बंगला गाड़ी

मिस्सिसिपी जल रहा है, मिस्सिसिपी इज बरनिंग...... एक अंग्रेज़ी अखबार में मैंने पहले पन्ने पर लीड स्टोरी पैकेज पढी, स्टोरी का सार है कि भारत से एक साहब ये सपना संजोकर निकले कि उन्हें अमरीका में खूबसूरत सा बंगला, लक्जरी गाड़ी और आकर्षक सैलरी पैकेज मिलेगा, वहाँ पहुंचे तो उन्हें जेल से बदतर ज़िंदगी गुजारनी पड़ी,,जेल में तो कम से कम ताज़ा खाना मिल जाता है ,मगर वहाँ तो बासी भी सुकून से नहीं मिला। एक बाड़े में उन्हें और उनके जैसे २४ साथियों को कैद कर लिया गया था..ख़बर छपने के बाद भारत सरकार ने इसका संज्ञान लिया औरk अमेरिका इ से हस्तक्षेप करने को कहा गया गया है। खैर....ये एक झलक है बस, कैसे सात समंदर पार ज़िंदगी होती है ..कमोबेस यही हालात कनाडा, ब्रिटेन, दुबई, सौदी अरब, जैसे देशं में भी है सवाल बड़ाहै कि क्या हमें ग्लोबल विल्लेज के दौर में भी देश में बन्धकर रह ना चाहिए या फिर नए आकाश में उड़न भरनी चाहिए। बात विदेश की ही क्यों ...करें...apne desh men kaun sa pardesiyaon ko khuli hawa men saans lene diya ja raha hai ...

kawi rajesh joshi ke shabdon men kahen to

hamen hamare bachpan se judi har cheej se door le jaya gaya, hamen hamari galiyon, patiyon chaurahon se bahar nikala gaya..bahut tuchchi jarooraton ke badle cheena gaya hamse hamara itna kuchh,,kise se kahen to kahega vyarth hi bhawuk ho rahe ho tum..jagahon se payar karne kaa riwaj to kab ka khatm ho chuka hai..

बुधवार, 5 मार्च 2008

टूटे न हुलास का सिलसिला..

पडाव बदलने की आपाधापी कहें या मेरा आलसीपन , लंबे समय से “ अहा हुलास” की हाल -ख़बर नहीं ले paya. अब जीवन कुछ dharre पर to चलो करते हैं कुछ हुलास भरी बातें...