रविवार, 27 जुलाई 2008

हाई अलर्ट....बी अलर्ट, वी अलर्ट!

कितने बेबस हो गए हैं हम। रौ में चल रहा जनजीवन जाने कब तबाही के मंजर में तब्दील हो जाए। हंसी-ठिठोली, ठहाके और जिजीविषा का शोर कब तरमीम हो जाए चीत्कार और हा-हाकार में। कहीं से खबर न आए जाए अपनों के मारे जाने की। अब आदत सी तो नहीं बन जा रही है हमें ऐसे माहौल में घुट-घुटकर और टूट-टूटकर जीने की। बेंगलुरू के बाद शनिवार को अहमदाबाद में दहशतगर्दों की कायराना हरकत ने फिर हमें झिझोंड़ डाला। हम मुंह मोड़ ले रहे हैं। सिर्फ इतना भर पता करके संतोष कर ले रहे हैं कि धमाकों की जद में कहीं हमारा कोई लगा-सगा तो नहीं आ गया। कैसी विपदा में फंसे हैं हमारे भारत के अमनपसंद लोग। हमारी साझी विरासत को कैसे तार-तार कर रहे हैं सिरफिरे। राजधानी समेत देश के तमाम बड़े शहरों में हाई अलर्ट है। सिक्योरिटी सिस्टम मुस्तैद है। हमें भी मुस्तैदी दिखानी होगी। हमारे बीच ही छिपे हैं मासूमों के कातिल नमक हराम। स्लीपर सेल को जमींदोज करने को हमें जागना होगा। ये खबर का विषय नहीं है। मीडिया जगत और सरकारी प्रचार तंत्र से भी गुजारिश है कि कैसे हुए धमाके....इन खबरों के बजाए हमें रोज-ब-रोज याद दिलाएं कि कोई चुटकी भर बारूद रखकर हमारी तबाही का खेल-खेलने की साजिश तो नहीं रच रहा। वरना हमारे चीथड़े यूं ही उड़ते रहेंगे।