सोमवार, 29 दिसंबर 2008

साल नया, पुरानी इबारत

लो, फिर आ गया नया साल
मेरे कैलेंडर की इबारत बदलने
०१ जनवरी से ३१ दिसंबर तक
एक-एक दिन विहान किए मैंने
नए साल के इंतजार में..
अब आने को है नया साल
बीबी कल ही ले आईं नया गणेशआपा
पहले उनने त्यौहारों की तारीखें देखीं
फिर उलटा सालाना राशिफल का पन्ना
रोजगार की दिशा में किया प्रयास सार्थक होगा
साल के मध्य में सुधरेगी राहु की महादशा
उनकी आंखें चमकीं, उनींदेपन से मुझे झिंझोड़ा
मैंने, उबासियां लीं, 'सुजाता' का चेहरा हाथों में थामा
कितनी आशावादी हो तुम..मैंने कहा..
३१ दिसंबर २००७ का संवाद मत दोहराओ।
हां, मेरी शर्ट सफेद करती रहो रोज..
मैं रंग भरूंगा तुम्हारे सपनों में एक रोज
अपनी नींदें कर दी हैं नीलाम, ज़मीर गिरवी
चूल्हा गरम करने को, तुम्हारी साड़ी में पैबंद लगाने को।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

स्मृति शेष ......

परम आदरणीय बाबू लाल शर्मा जी को श्रद्धा के दो पुष्प मेरी ओर से भी....

बुधवार, 27 अगस्त 2008

कुछ नई लड़कियां.....

अबे ओए...इधर आ॥तू साले ना ऐसे नहीं सुधरेगा..इतना कहकर उस लड़की ने अपने हम उम्र लड़के को पीछे से एक किक जमाई। मैं तो ताकता ही रह गया॥टुकुर..टुकुर। लोवर हाफ़ में घुटने के थोड़ा नीचे तक चुस्त जींस॥ऊपर बनियाननुमा टीशर्ट डाले हुए थी वह लड़की। टीवी की पत्रकार है वह..उसके जैसी कई लड़कियां हैं। जो घर से दफ्तर के लिए निकलती हैं तो शर्म हया, लाज-लिहाज सब आल्मारी में बंद कर आती हैं। मेरे लिए ये थोड़ा नया और अटपटा भी था। ये तो सुना था कि थोड़ी बोल्ड होती हैं ये। मगर, इतनी ज़्यादा ये नहीं सोचा था। बेचारी हैं...करें तो क्या करें॥घर की चौखट लांघी नहीं कि अनगिनत निगाहें गड़ जाती हैं उन पर..समझती खूब हैं..पर ये समझने देती हैं कि वो कुछ समझ नहीं रही हैं। अब पर्दे में छिपी-दबी सकुचाई सी रहने वाली नहीं..मेरी दादी अम्मा बताती थीं कि उन्होंने पहली दफा जब दादाजी का चेहरा ठीक से देखा था तब तक उनकी तीन संतानें पैदा हो चुकी थीं,,मैंने थो़ड़ी ठिठोली भी की थी उनसे कि दादा जी का चेहरा देखे बगैर आप मां बनीं कैसे..उन्होंने आंखें तरेंरीं और कुछ बताया..जिसका आशय था कि अंधेरा भी लाज-लिहाज का परदा होता था। मगर दादी का ज़माना तो कब का लद गया भाई। महिलाएं पुरुषों के कदम से कदम मिलाकर नहीं, बलि्क उनसे एक दो कदम आगे बढ़कर चल रही हैं। मुझे इस पर आपत्ति नहीं है..आपत्ति है तो बस उनके टर्न आउट (पहनावे) पर। उनके साथ अभद्रता होती है..रेप जैसी वारदातें भी कम नहीं हो पा रही हैं। कहीं न कहीं विकृति कायम है। इसे उभरने न दें। बच्चियों आगे बढ़ो..लड़ो..चढ़ो..टकराओ,,लेकिन संभल..संभलकर पांव रखो..अभी गली-गली में शैतान घूम रहे हैं मुखौटे लगाए........

रविवार, 27 जुलाई 2008

हाई अलर्ट....बी अलर्ट, वी अलर्ट!

कितने बेबस हो गए हैं हम। रौ में चल रहा जनजीवन जाने कब तबाही के मंजर में तब्दील हो जाए। हंसी-ठिठोली, ठहाके और जिजीविषा का शोर कब तरमीम हो जाए चीत्कार और हा-हाकार में। कहीं से खबर न आए जाए अपनों के मारे जाने की। अब आदत सी तो नहीं बन जा रही है हमें ऐसे माहौल में घुट-घुटकर और टूट-टूटकर जीने की। बेंगलुरू के बाद शनिवार को अहमदाबाद में दहशतगर्दों की कायराना हरकत ने फिर हमें झिझोंड़ डाला। हम मुंह मोड़ ले रहे हैं। सिर्फ इतना भर पता करके संतोष कर ले रहे हैं कि धमाकों की जद में कहीं हमारा कोई लगा-सगा तो नहीं आ गया। कैसी विपदा में फंसे हैं हमारे भारत के अमनपसंद लोग। हमारी साझी विरासत को कैसे तार-तार कर रहे हैं सिरफिरे। राजधानी समेत देश के तमाम बड़े शहरों में हाई अलर्ट है। सिक्योरिटी सिस्टम मुस्तैद है। हमें भी मुस्तैदी दिखानी होगी। हमारे बीच ही छिपे हैं मासूमों के कातिल नमक हराम। स्लीपर सेल को जमींदोज करने को हमें जागना होगा। ये खबर का विषय नहीं है। मीडिया जगत और सरकारी प्रचार तंत्र से भी गुजारिश है कि कैसे हुए धमाके....इन खबरों के बजाए हमें रोज-ब-रोज याद दिलाएं कि कोई चुटकी भर बारूद रखकर हमारी तबाही का खेल-खेलने की साजिश तो नहीं रच रहा। वरना हमारे चीथड़े यूं ही उड़ते रहेंगे।

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

भीड़तंत्र और सिर पर मंडराता मौत का साया...

एक खबरिया चैनल पर आज शाम दो लाइव शॉट देखकर मन दो तरह का हुआ॥ थोड़ा खिन्न और थोड़ा भयाक्रान्त। सचमुच ऐसा ही है या सचमुच ऐसा नहीं है। क्या जैसा है,,वैसा दिखता है? और जैसा दिखता है..वैसा है?????सवाल कुछ कौंधते हैं..बिंब कुछ उभरते हैं..प्रतिबिंब भी। शॉट क्या थे ये तो सुन लीजिए।शॉट-एकराजधानी का मंडावली इलाका...,,,एक औरत...बेचारी..औरतों के बीच घिरी हुई..तमाम तमाशबीन..उनमें पुरुष भी। पहले एक महिला ने चप्पल उतारी और ताबड़तोड़ उस महिला पर बरसानी शुरू कर दी, फिर कोई हाथ साफ करने से चूका नहीं, उस भीड़ में न महिलाएं और न ही पुरुष..सभी उसको बेतहाशा पीटते रहे..फिर क्या वह चैनल वालों के हाथ लग गई..बेचारी..फिर तो मामला ऑन-लाइन हो गया..कौन-कौन नहीं आया लाइन पर..किरन बेदी साहिबा भी आईं। तीन चेहरे दिखे पहला चेहरा भीड़तंत्र का..दूसरा न्यूज कॉर्पोरेट तंत्र और तीसरा संचालक तंत्र यानी व्यवस्था का। उलझन में हूं,,,सोच रहा हूं..व्यवस्था में खोट है (जहां महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील और सीएम शीला जी हैं,,,और शायद उस इलाके की एमएलए भी आधी दुनिया से ही बिलॉंन्ग करती हैं) या ये भीड़तंत्र की साइकोलॉजी है? कुछ आप ही सुझाएं....समाधान...

शॉट-दोएक गोल्डन ईगल..किसी लड़ाके विमान के मानिंद सांय...सांय...सांय कर आसमान से गलबहियां करता हुआ।..उसने थोड़ा नीचे की ओर रुख किया और एक छोटी सी पहाड़ी पर घास चर रहे बकरी के बच्चे को पंजे में दबोचकर उड़ चला। इस सेंसेशनल शॉट के साथ कैच वर्ड भी था..घाटी पर मंडराती मौत...मैं थोड़ा सहम गया..कहीं बाज इंसान के बच्चों पर न हमलावर होने लगें। शाम को दफ्तर जाने के लिए निकला तो आकाश की ओर ताका,,कहीं ऊपर मौत तो नहीं मंडरा रही है..बगल वाले भाईसाहब को भी ताकीद कर आया था कि वे भाभीजी से बता दें कि बच्चे जब खुले आसमान के नीचे खेल रहे हों तो वे एक लग्गी लेकर उनकी सिक्योरिटी में लगी रहें।

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

मां.. जगद्जननी हमारा पोषण करें..

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संसि्थता नमस्तस्यै॥नमस्तस्यै..नमस्तस्यै नमो नमः..........हे देवी मैं यथाशकित आपकी उपासना करते हुए यह कामना करता हूं कि आप संपूर्ण जगत में शक्ति, शांति और समृद्धि का संचार करें। मां आन्नपूर्णा..आप भुखमरी और दरिद्रता से आकुल व्याकुल प्राणियों को उबारें। भय और दहशत से तप्त संसार को शीतल छाया प्रदान करें.. मां शीतला। हे महिषासुर मर्दिनी आप संहार करें आसुरी प्रवृत्तियों का। हे हंस वाहिनी,, आप विद्या रूपी प्रकाश से संसार का तमस दूर करें। जगद्जननी आप इस प्रकार हमारा पोषण करें। मुझमें नहीं है सामर्थ्य आपको प्रसन्न करने की। आप विवेक दें या स्वयमेव प्रसन्न हों भवानी........।

शुक्रवार, 28 मार्च 2008

वाह रे लड़कपन....

आज दफ्तर में बैठे-बैठे प्रसंगवश बचपन का एक रोमांचक किस्सा चल निकला। ये मेरे जीवन के तमाम रोचक किस्सों में से एक खास है। आपने मेरा ब्लॉग खोल ही डाला है तो सुन ही डालिए। किस्सा सन १९९२ के आस-पास का है। मैं उस समय १०वीं क्लास पास कर ११वीं में गया था। १० वीं का इम्तहान दे रहा था तो पिताजी ने कहा, मन लगाकर पेपर दो, ठीक-ठाक नंबर लाओगे तो साइकिल मिलेगी इनाम में। खैर, ठीक-ठाक नंबर तो नहीं, मगर मैं पास हो गया। इनाम लायक काम तो किया नहीं था, सो इसकी आशा भी नहीं की..मगर ये क्या पापा ने साइकिल दे ही दी..कहा..तुम पास हो गए...मेरे लिए यही बहुत है। चलो..भइया साइकिल मिली..हरे-हरे रंग की..एटलस गोल्ड लाइन..मेरी तो बस बांछे ही खिल उठीं..सवार हुआ और शेखी बघारने चल दिया सबसे आजीज दोस्त के पास..वहां उसके घर के सामने साइकिल खड़ी की और घर में चला गया..लौटा तो साइकिल नदारद..पैरों तले जमीन खिसक गई। दोस्त से कहा,,बहुत तोड़ाई होगी यार घर पर..पिताजी न गिराकर मारेंगे। दोस्त इमोशनल हो गया,,बोला परेशान मत हो,,,आज चचा से कह देना कि मैने ले ली है साइकिल..कल के लिए कुछ जुगाड़ करूंगा। मैंने घर पर वैसा ही बहाना बनाया। दूसरे दिन फिर मीटिंग हुई उसी हमराज दोस्त के साथ..हुं,,क्या किया जाए..हम लोग उस समय जीआईसी फैजाबाद के कैंपस में थे। यकायक उसकी आंखें चमकीं और उसने मुझसे कहा..तुम गेट पर पहुंचो..मैं आ रहा हूं..पांच मिनट में वह एक साइकिल लेकर हांफता-डांफता पहुंचा..बोला..लेकर भाग इसे..मैं तो सहम उठा..इतना ढीठ नहीं था..उसने फिर कहा,,भाग नहीं तो तू मुझे भी पिटवाएगा..मैंने दुस्साहस बटोरा और भाग निकला साइकिल लेकर..ठीक-ठीक याद है मुझे..साइकिल के पैंडल ही नहीं चल रहे थे मुझसे..हांफ गया चार मीटर की दूरी पर ही..लगा आभी गिर पड़ूंगा..उफ..किसी तरह घर पहुंचा और साइकिल तो डाल दी भुसैले में(जहां भूसा रखते हैं)। पसीने से तरबतर..बाहर आया..देखा कि कोई पीछा करके घर तक तो नहीं आ गया..न न न कोई नहीं..फिर भी चैन नहीं। घर में गया तो मां ने पूछा क्या बात है..काहे परेशान हो? कहा..कुछ नहीं..साइकिल....। साइकिल क्या? उन्होंने फिर पूछा..मैंने कहा..पंक्चर हो गई है.पैदल लाया..इसलिए थक गया.. मां बेचारा क्या जाने हमारा चौआल..बोली तो आराम कर लो..खानापीना खाकर। साइकिल १५ दिनों तक भुसैले में ही पड़ी रही..मैं उसे निकालने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। इस बीच पिताजी ने कई बार तगादा किया कि ...का हो..सइकिलिया का भई॥ अभी दोस्तवै के पास है..बहुत बड़े दानी हो..हमका बीए तक नहीं मिली थी साइकिल..। तरसते होते तो पता चलता..। मैंने कहा,,साइकिल तो ले आया पापा..पर एक गड़बड़ी हो गई..पिताजी बोले क्या..मैंने कहा..दोस्त ने कहीं गलती से बदल दी..बहुत खफा हुए..मगर बाद में शांत हो गए। मगर मेरा मन नहीं शांत हुआ..अभी भी..जब वो किस्सा याद आता है तो हलचल सी मचती है। वो मेरा मासूम चोर दोस्त फिलवक्त टाई बांधकर घूमता है,एमआर है,,मैं भी समाज का एक जिम्मेदार पेशेवर हूं..दोनों जब कभी मिलते हैं तो यह वाकया फिर ताजा हो जाता है..दोस्ती के बंधन में एक मजबूत गांठ और कस उठती है..मगर गलत था..वह..बिलकुल गलत..कभी कोई हालात ऐसी जरूरी चोरी करने के लिए फिर न उकसाए..न उसे न हमें और किसी को भी नहीं।।

सोमवार, 17 मार्च 2008

बुरा तो मानो होली है भइया..

हुल...हुल..हुल ..हुल हल्ला हुल हुल.....होली है भाई होली है...बुरा न मानो होली है..बुरा मान भी सकते हैं मने किकुछ न कुछ तो मानना ही पड़ेगा आपको..बुरा या भला..बुरा मानेंगे तो उसमें भी एक जुडाव छुपा होता है..वरना साहब सड़क चलते कौन किस से नाराज होता है..होता भी है तो मार ही डालता है। हम ख़बर नवीसों को अक्सर ऐसे किस्से मिलते हैं छपने को..कोई नाराज हो किसी से और फिर कोई उसे मनाये..गिले शिकवे साझा हों , फिर एलास्टिक के तन्तु के मानिंद खिंचाव हो और एक दूजे से फिर सटाक से चिपक जायें...अहा आहा..क्या कभी आपने ऐसा सुख महसूसा है...नहीं तो दुर्भाग्य॥
चलो देखते हैं कि पिछले ३१ सालों में कैसे बदली होली..मैं अब ३१ साल का हूँ.. सन ८३ कि होली मुझे याद है..हलकी हलकी धुंध सी स्मृति है..होली तब se ab badrang हुई है कि और चटख ..इस बारे में मनन कर रहा हूँ.. अब दिल्ली में हूँ..तब अपने आँगन मे था..लाल-पीली नीली काले धब्बे..हरे चटख रंगों वाली साड़ी पहनकर जब फागुन रानी आती थीं तो लगता था कि अपने साथ लाया हुआ उल्लास और उत्साह से भरा बक्सा उन्होंने खोल दिया जो पूरी फिजां में तैर जाती थी..ओफ्फो ,,,गज़ब की मिठास घुली रहती थी..पूरे माहौल में । जब मैं बच्चा था तो फागुन रानी मुझे अपनी माँ जैसी लगती थीं, किशोर हुआ तो सुंदर लड़की, फिर प्रेयसी॥
''''होली खेलें रघुबीरआ अवध में होली खेलें रघुबीरा...'''''सुबह से ही ढोल मजीरे लेकर मस्त फाग की टोलियाँ घर-घर जाकर धमाल मचाती। अब शोर थम गया है..पिता जी नहीं रहे..पुद्दन चाचा भी और सरजू दादा..भी उमर पूरी कर चले गए..कौन बजाये अब ढोल..परधान जी के लौंडे ने चन्दा इकट्ठा किया..ऑर्केस्ट्रा और dजे मंगाया..वहाँ बवाल हो गया....थम गया सिलसिला
सिर फूट गये कई लोगों के पुलिस आई गांव में फौजदारी हो गई। जमाना खराब हो गया॥कोई घर से बाहर नहीं निकलता होली के दिन..आरे सब घुप्प..बंद का हो चचा होली वोली न होए..आरे हटो कौन खेलने जाए लंफूसों के बीच में सब के सब साले दारू पिए हैं..और जो दारू पिए हैं होली तो उन्हीं की है..यानी जो मदहोश हैं...बे...होश हैं..होश में नहीं हैं तो होश वालों की होली कैसे होगी...
हमने तो रंग घोला और खुद ही आपने ऊपर डाल लिया॥कालिख उनके लिए रख छोड़ी है जो हमारे त्यौहारों को स्याह कर रहे हैं..कमीने लोग..
''''गंध नहीं है आब बची टेसू के फूलों में..दुर्गध फैला रहे हैं सिरफिरे 'तमाम..'''

मंगलवार, 11 मार्च 2008

हाँ,हाँ, विदेश में ऐसे ही होतें हैं बंगला गाड़ी

मिस्सिसिपी जल रहा है, मिस्सिसिपी इज बरनिंग...... एक अंग्रेज़ी अखबार में मैंने पहले पन्ने पर लीड स्टोरी पैकेज पढी, स्टोरी का सार है कि भारत से एक साहब ये सपना संजोकर निकले कि उन्हें अमरीका में खूबसूरत सा बंगला, लक्जरी गाड़ी और आकर्षक सैलरी पैकेज मिलेगा, वहाँ पहुंचे तो उन्हें जेल से बदतर ज़िंदगी गुजारनी पड़ी,,जेल में तो कम से कम ताज़ा खाना मिल जाता है ,मगर वहाँ तो बासी भी सुकून से नहीं मिला। एक बाड़े में उन्हें और उनके जैसे २४ साथियों को कैद कर लिया गया था..ख़बर छपने के बाद भारत सरकार ने इसका संज्ञान लिया औरk अमेरिका इ से हस्तक्षेप करने को कहा गया गया है। खैर....ये एक झलक है बस, कैसे सात समंदर पार ज़िंदगी होती है ..कमोबेस यही हालात कनाडा, ब्रिटेन, दुबई, सौदी अरब, जैसे देशं में भी है सवाल बड़ाहै कि क्या हमें ग्लोबल विल्लेज के दौर में भी देश में बन्धकर रह ना चाहिए या फिर नए आकाश में उड़न भरनी चाहिए। बात विदेश की ही क्यों ...करें...apne desh men kaun sa pardesiyaon ko khuli hawa men saans lene diya ja raha hai ...

kawi rajesh joshi ke shabdon men kahen to

hamen hamare bachpan se judi har cheej se door le jaya gaya, hamen hamari galiyon, patiyon chaurahon se bahar nikala gaya..bahut tuchchi jarooraton ke badle cheena gaya hamse hamara itna kuchh,,kise se kahen to kahega vyarth hi bhawuk ho rahe ho tum..jagahon se payar karne kaa riwaj to kab ka khatm ho chuka hai..

बुधवार, 5 मार्च 2008

टूटे न हुलास का सिलसिला..

पडाव बदलने की आपाधापी कहें या मेरा आलसीपन , लंबे समय से “ अहा हुलास” की हाल -ख़बर नहीं ले paya. अब जीवन कुछ dharre पर to चलो करते हैं कुछ हुलास भरी बातें...