गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

एक साथी की चिट्ठी...

कुछ पुराने पत्रजात खोज रहा था, तभी एक लिफाफा हाथ लग गया। मेरे चंडीगढ़ वाले पते पर भाई पंकज मिश्र ने बरेली से ये चिट्ठी भेजी थी। चिट्ठी पर तारीख है छह दिसंबर २००६ की। आज २ दिसंबर २०११ है। पांच एक साल गुजर गए। लिखा हुआ स्थायी रहता है। शब्दों की ये अपनी गरिमा है..उन पर वक्त की धूल जम जाती है,,पर मिटते कहां हैं ये अल्फाज। आप भी बांचिए हमारे सखा की चिठिया...
प्यारे फैजाबादी,
आज तुम्हारी याद बड़े गहरे से होकर गुजरी, बस चिट्ठी लिखने बैठ गया। एक कहानी पढ़ रहा था-बलि। हंस के अगस्त २००६ के अंक में छपी स्वयंप्रकाश की कहानी, जिसमें एक लड़की है, अपने रीति-रिवाजों- जगहों से प्यार करने वाली, लेकिन बाजार और विकास की जुगलबंदी उसे जिस तरह खत्म करती है, वह बड़ा तकलीफदेह है। खैर..कहानी की छाया प्रति तुम्हारे लिए नत्थी कर दी है।
इधर, फोन पर तुमसे लंबी-लंबी बातें हुईं,लगा कि तुम अभी चंडीगढ़िया नहीं हुए, फैजाबादी ही हो और रहोगे। उमराव जान अदा और गजल साम्राग्यी बेगम अख्तर के शहर के। आचार्य नरेंद्रदेव और राम मनोहर लोहिया की जमीन के। उस अवध के हो जहां, कभी मानस के कई कांड तुलसीदास ने रचे। तुम मसोढ़ा वाले कवि शलभ श्रीराम के पड़ोसी हो। अरे तुम तो पूरे अवधिया हो भाई। लगता भी है जब भावुकता में फक्क से रो पड़ते हो और मुशि्कल में सीना तानकर खड़े हो जाते हो।
पुरवाई चलती है तो बड़ा अच्छा लगता है। इसमें अवध की मिठास भी बही चली आती है, इसमे शाहजहांपुर भी घुला-मिला रहता है। मैं यहां कंक्रीट के ऐसे जंगल में हूं, जहां हवाएं भी बड़ी बेरहम हो जाती हैं। मित्र बड़ा निष्ठुर समय है यह। यहां कोई भी अर्थ खोजना व्यर्थ है। धूमिल के शब्दों में---नहीं वहां अब कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है। पेशेवर भाषा के तस्कर संकेतों और बैलमुती इमारतों में कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है, हो सके तो बगल से गुजरते आदमी से कहो---लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा, यह जुलूस के पीछे गिर गया था। तो ऐसे मुखौटों में चेहरों की पहचान कहां? एक अजनबीयत पसरी है चारों ओर। हां, कुछ चीजें तुम्हारे पास हैं जो तुम बरेली के पड़ाव में छोड़ गए थे। जब अंधेरा घना होता है तो इन्हीं के सहारे रोशनी तलाश लेता हूं। अब लोग क्या समझेंगे इन चीजों के मायने। जगहों से प्यार करने का रिवाज तो कब का खत्म हो चुका है और यादों को जिंदा रखने का भी।
स्वस्थ, मस्त, व्यस्त होगे, आभास।
भाई ही
पंकज मिश्र

शनिवार, 19 मार्च 2011

खबर

१५ अगस्त २००९. तब से अब तकरीबन डेढ़ बरस बीत चुके हैं। बस वही विदाई वाली पोस्ट पड़ी है। कुछ गोंदागादी नहीं हो पाई। इस दरम्यान पंकज भाई ने झाड़पोंछकर अपना ब्लॉग चमका लिया है। इस होली हम फिर सिलसिला शुरू करते हैं। अब चलता रहे हे होलिका माई। बोल कबीरा सारारारारा...