गुरुवार, 28 मई 2009

...मत बनाओ मेरे गाँव को दिल्ली

बाहर निकालो! मुझे
पत्थरों के इस बियाबान से,
उफ़! कितनी घुटन है, टूटन है, ऊबन है
कितनी रेतीली है, पांव के नीचे की धरती
पानी की सोत तलाशते बेदम हूँ मैं
कनाट प्लेस के गंधहीन वोगेनबेलिया से
कहीं ज़्यादा खूबसूरत हैं, मेरे गाँव के दक्खिन में खिले
बेहया के फूल
हाँ, मुझे प्यार है, अपने तालाब की जलकुम्भी से
कीचड़ की सोंधी महक से
मत बनाओ मेरे गाँव को दिल्ली.

1 टिप्पणी:

सत्यप्रकाश आज़ाद ने कहा…

hame bhi apane gaon aur seewan ki yaad aa gaee, ye zazbaat dil me bhi rahe aur yatharth ke dharatal par bhi utarani chahiye.

jai hind!